बनकर मैं खुद ही जला देते हैं हैं जंगल लेकिन मामला खुलने पर आग बुझाने का कर देते हैं दिखावा

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बलरामपुर—-
डॉक्टर संजय शुक्ला पथिक—–

” मुझे ठीक से याद नहीं है की किस कवि सम्मेलन में मैंने यह शेर पढ़ा था लेकिन जो भी था आज इस माहौल में बिल्कुल सटीक बैठता है—–
” अपने घर की नींव में बारूद रखने के लिए/ आदमी अपने ही घर के काम में लाए गए”

कुछ यही हाल है बलरामपुर जनपद के बरहरवा और बनकटवा जंगल की। यहां प्रत्येक वर्ष मार्च और अप्रैल के महीने में 1 कर्मी जंगल को फूंक दिया करते हैं जिसमें कभी-कभी तो आग की वीभत्स ता ने करोड़ों रुपयों की बेशकीमती लकड़ियां तमाम जीव जंतु व दुर्लभ औषधियां तक जलकर नष्ट हो जाती है। अब प्रश्न यह है कि 1 कर्मी जंगल जलाते क्यों है। यदि निष्पक्ष तरीके से इस बात की न्यायिक जांच कराई जाए तो पूरा जंगल महकमा सलाखों के पीछे होगा।
दरअसल इन जंगलों में सागौन और खेल की बेशकीमती लकड़ियों की अधिकता है। यहां पर वन माफिया और बीट वनरक्षक तथा उच्चाधिकारियों की मिलीभगत से अक्टूबर से लेकर फरवरी महीने तक खूब अवैध कटान होती रहती है। क्योंकि जितने भी वृक्ष अवैध तरीके से काटे जाते हैं उनके बूट सबूत के तौर पर शेष रह जाते हैं। समाजसेवी संगठनों पत्रकारों तथा उच्चाधिकारियों की नजर में यह बूट सबूत के तौर पर न आने पाए इसीलिए वनरक्षक लोग अपनी-अपनी बीड के जंगलों की झाड़ियों को जलवा देते हैं ताकि उसे आग के साथ काटे गए पेड़ों के बूट भी जलकर समाप्त हो जाएं और वन माफिया तथा वन विभाग की मिलीभगत का कच्चा चिट्ठा जनता और सरकार के सामने ना आ सके। नाम न छापने की शर्त पर एक वन कर्मी ने बताया कि उन्हें ऊपर से आदेश रहता है कि मार्च महीना शुरू होते ही जंगल की झाड़ियों में आग लगवा दिया करो तो मजबूरी में हमें ऐसा करना पड़ता है। हालांकि कभी-कभी यह आग इतना वीभत्स रूप धारण कर लेती है कि उसमें प्रतिवर्ष करोड़ों रुपयों की बेशकीमती लकड़ियां तमाम हरे वृक्ष तमाम जीव जंतु और तमाम दुर्लभ अवसर दिया जलकर नष्ट हो जाया करती है। यह वर्षों से चली आ रही परंपरा है। संवाददाता ने जंगलों के भीतर घुस कर मुआयना किया और देखा कि जिन पेड़ों की रखवाली का तनख्वाह वनरक्षक और वचन लेते हैं वहीं पेड़ रुपयों की लालच में वन विभाग की मिलीभगत से वन माफिया काटकर जंगल का सफाया करने में जुटा हुआ है।
अभी हाल ही में नंद नगर गांव के पास जंगल में आग लगाई गई थी किंतु ग्रामीणों के विद्रोह और स्वयं बुझाने का प्रयास शुरू कर देने से वन विभाग सकते में आ गया और दिखावे के तौर पर खुद भी आग को बुझाने में जुट गया। यह अलग बात है कि अन्य जगहों पर जंगल जल रहे हैं जबकि वन माफिया और बनकर मी अपनी जेब गर्म करने में मशगूल हैं। पिछले एक दशक से विकासखंड हरैया सतघरवा क्षेत्र में बाघ और चीते का आतंक प्रायः व्याप्त रहता है। इसका भी यही कारण है कि जब जंगल में आग लगवा दिया जाता है तो ऐसे हिंसक जानवर आग से बचकर इंसानी बस्ती में आ जाते हैं जहां वह इंसानों और मवेशियों को अपना निवाला बनाने लगते हैं। दो दशक पूर्व कुछ इसी तरह 50 से अधिक मासूम बच्चे केवल हरैया सतघरवा विकासखंड क्षेत्रों में ही हिंसक जंगली पशुओं का निवाला बन चुके हैं और अभी तक यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। आए दिन खबर मिलती है कि फला गांव में बाघ ने फला व्यक्ति पर हमला कर दिया अथवा किसी गांव में घुसकर किसी के मवेशी को अपना निवाला बना लिया। यह अलग बात है कि प्रभागीय वन अधिकारी बलरामपुर इस बाबत कहते हैं कि ऐसा कुछ भी नहीं है जंगल में आग अज्ञात कारणों से लग जाती है जो हास्यास्पद है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि किसी एक जंगल में भूल बस आग लग सकती है वह भी एक बार अथवा दो बार किंतु भारत नेपाल सीमा से लगे जंगलों के तमाम हिस्सों में प्रतिवर्ष मार्च और अप्रैल के महीने में अकस्मात या अज्ञात कारणों से ही सदैव आग नहीं लग सकती। इसके पीछे जरूर कोई रहस्य है जिससे पर्दा नहीं उठ रहा है और यदि पर्दा उठ गया तो बड़े से बड़े वन विभाग के अधिकारी और सफेदपोश लोग जेल की सलाखों के पीछे होंगे।

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